पाकिस्तान : हाल ही में पाकिस्तान में एक ऐसा फैसला हुआ, जिसने सिर्फ देश की सेना की शक्ति को नहीं, बल्कि वहां के लोकतंत्र की वास्तविक स्थिति को भी उजागर कर दिया। पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसिम मुनीर को अब “फील्ड मार्शल” की उपाधि दे दी गई है। यह कोई साधारण प्रमोशन नहीं है। इस पद की हैसियत पाकिस्तान की तीनों सेनाओं — थल, जल और वायु — में सर्वोच्च मानी जाती है।
लेकिन सवाल सिर्फ इतना नहीं है कि आसिम मुनीर को यह रैंक क्यों दी गई। असली सवाल यह है कि क्या यह प्रमोशन लोकतंत्र की सीमाओं को लांघता हुआ एक सेनाधिकारी को तानाशाही की ओर ले जाने का इशारा है?
हाल ही में भारत के पहलगाम में हुए आतंकी हमले और उसके बाद भारतीय सेना द्वारा चलाए गए “ऑपरेशन सिंदूर” ने एक बार फिर भारत-पाक संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना ने पाकिस्तान समर्थित आतंकियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई की, जिसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुंह की खानी पड़ी।
लेकिन पाकिस्तान की सेना और सत्ताधारी दल इस असफलता को उलट कर, अपने नागरिकों के सामने इसे “एक जीत” की तरह पेश कर रहे हैं। और इसी कथित ‘जीत’ को सेलिब्रेट करने का एक प्रतीकात्मक तरीका निकाला गया — जनरल आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल की उपाधि देना।
आधिकारिक रूप से यह फैसला पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ की कैबिनेट द्वारा लिया गया। लेकिन देश-विदेश के विश्लेषक और जानकार इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि आज के पाकिस्तान में सबसे ताकतवर शख्स कोई प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि जनरल आसिम मुनीर हैं।
पाकिस्तान का इतिहास गवाह है कि वहां की सेना हमेशा सत्ता के केंद्र में रही है। भले ही लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़ा गया हो, लेकिन निर्णय लेने की असली ताकत रावलपिंडी (जहां सेना मुख्यालय है) में ही बसती रही है। और अब तो इस पर कानूनी मुहर भी लग चुकी है।
कुछ समय पहले पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा निर्णय दिया, जिसने जनरल मुनीर को अभूतपूर्व शक्तियां प्रदान कर दीं। कोर्ट के अनुसार, अब पाकिस्तानी सेना का प्रमुख — यानी आसिम मुनीर — किसी भी नागरिक या सैनिक को सैन्य अदालत में खड़ा कर सकता है, उस पर मुकदमा चला सकता है और सजा भी सुना सकता है।
यह अधिकार न सिर्फ असाधारण है, बल्कि इसे देखकर यह स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थाएं अब सेना की छत्रछाया में ही काम कर रही हैं। एक ऐसा सिस्टम जहां कार्यपालिका, विधायिका और अब न्यायपालिका — तीनों ही सेना के इशारे पर नाचते नजर आते हैं।
पाकिस्तान के इतिहास में अब तक सिर्फ एक ही फील्ड मार्शल रहा है — मोहम्मद अय्यूब खान। उन्होंने 1958 में लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट कर तानाशाही शासन की शुरुआत की थी और खुद राष्ट्रपति बन बैठे थे।
अब जब आसिम मुनीर को भी वही पद मिला है, तो ये सवाल लाज़िमी है कि क्या वह भी उसी राह पर चलने को तैयार हैं?
कई विश्लेषक यह मानते हैं कि ये प्रमोशन सिर्फ एक औपचारिकता नहीं है, बल्कि एक लंबी योजना का हिस्सा है — सत्ता को पूरी तरह सेना के हाथों में सौंपने की योजना।
शाहबाज शरीफ की कैबिनेट चाहे इस फैसले को “राष्ट्रहित” में लिया गया निर्णय बताए, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की हैसियत आज उस देश में एक प्रतीकात्मक चेहरे से ज्यादा कुछ नहीं रही।
आज के पाकिस्तान में यदि कोई यह दावा करे कि प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर व्यक्ति कोई और है — तो वह सिर्फ और सिर्फ आसिम मुनीर ही हो सकते हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में तख्तापलट कोई नई बात नहीं। ऐसे में यदि आने वाले दिनों में यह फील्ड मार्शल स्वयं सत्ता की बागडोर संभाल लें, तो न तो पाकिस्तान की जनता को हैरानी होगी और न ही दुनिया को।
आसिम मुनीर को फील्ड मार्शल बनाए जाने का फैसला न सिर्फ पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति में एक बड़ा मोड़ है, बल्कि इससे भारत समेत पूरी दुनिया को यह संकेत मिलता है कि पाकिस्तान एक बार फिर सैन्य वर्चस्व की ओर बढ़ रहा है।
कभी युद्ध, कभी आतंकी प्रॉक्सी रणनीति और अब सत्ता का सैन्य केंद्रीकरण — पाकिस्तान के भविष्य पर कई सवाल खड़े कर रहा है।
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