आरएसएस मुखिया और सरकार के मुखिया के बीच 3 बरस से छाया था अबोलापन | इस कुल को कुलीनों का कुल कहा जाता है। जहाँ मतभेद तो होते हैं लेकिन मनभेद नहीं। यहाँ राष्ट्रकाज होता है, निजी कामकाज नहीं। यहाँ व्यक्ति नहीं, संगठन अहम होता है। जहाँ विरोधी भी अपना होता है क्योंकि देर-सबेर वो भी परिवार का हिस्सा होना है। इसी भाव से विरोध को देखा समझा जाता है। क्या ऐसे ही 100 बरस की यात्रा यहाँ तक आ गई? अगर इतने उदात्त भाव न होते तो आज दुनिया का सबसे बड़ा परिवार जिसे "संघ परिवार" कहा जाता है, नहीं होता। उस परिवार में सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक चिंतन और सामूहिक रूप से समाधान निकाला जाता है। "एकला चलो रे" का भाव संगठन स्तर पर होता है, व्यक्ति स्तर पर नहीं। वहाँ परिवार से जुड़ा "राजनीतिक लड़का" अकेला ही चलने लगा, सब कुछ स्वयं को समझने लगा। समझाइश तो ज़रूरी है, नहीं तो "घर के बच्चे" को बिगड़ते कितनी देर लगेगी? वो भी अन्य दल यानी परिवार जैसा हो जाएगा। फिर कुल कैसे कुलीन कहलाएगा?
इसलिए कलह और मतभेद सतह पर आते हैं तो भी अच्छे हैं - भविष्य के लिए। क्योंकि परिवार की ये एक सदी की यात्रा सिर्फ सत्ता के लिए नहीं है। यह तो भारत भूमि के पुनः अखंड और विश्वगुरु होने के लिए शुरू हुई है।
कुलीनों का कुल कहे जाने वाले संघ परिवार में पहली बार कलह सतह पर सामने आई है। यह कलह परिवार की राजनीतिक शाखा भाजपा को लेकर उजागर हुई है। दोनों में परस्पर कितने गहरे मतभेद हो गए हैं, ये भी खुलासा हो गया है। ये खुलासा स्वयं परिवार के मुखिया के मुख से हुआ। वह भी आरएसएस के उस शिक्षा-दीक्षा वर्ग के समापन मौके पर, जो आरएसएस की ट्रेनिंग की सबसे अहम परीक्षा होती है और जिसमें पात्रता पाने के लिए कड़ी परीक्षा से गुजरना होता है। कभी इसे आरएसएस का तृतीय वर्ष प्रशिक्षण कहा जाता था।
यह शिक्षण वर्ग सिर्फ नागपुर में होता है और वह भी आरएसएस मुख्यालय में। इसमें देशभर से चुनिंदा और चयनित स्वयंसेवक शामिल होते हैं। संघ मुखिया डॉ. मोहनराव भागवत ने इन्हीं स्वयंसेवकों के बीच खुलकर वे सब बातें कहीं, जिन्हें लेकर मोदी-2 सरकार प्रतिपक्ष के निशाने पर पूरे चुनाव में रही। इसमें सरकार का अहंकार और विपक्ष के साथ व्यवहार अहम था। संघ सुप्रीमो ने प्रतिपक्ष को भी नसीहत दी कि झूठ बोलकर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। गौरतलब है कि आम चुनाव में विपक्षी गठबंधन बार-बार संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने की बात कह रहा था।
यह पहला मौका है जब परिवार के मुखिया को अपने ही राजनीतिक शाखा को इस तरह समझाइश देना पड़ी। आमतौर पर आरएसएस सरकार के कामकाज पर सार्वजनिक बोलवचन से बचता ही रहा है। लेकिन लगता है इस बार "पानी नाक तक" आ गया था। आरएसएस की कार्यनीति में सदैव एक वाक्य अहम रहता है और वह है - "में नहीं तू" यानी "में" की जगह "तू"। "मैं" का संघ परिवार में कोई स्थान नहीं है, सब सामूहिक, सब एक दूसरे के सहयोग का भाव।
लेकिन उसी संघ की राजनीतिक शाखा में सिर्फ "में ही में" गूंजने लगा था। सामूहिकता का भाव एक तरह से सरकते जा रहा था और व्यक्तिवाद घर करता जा रहा था। तभी तो सरकार की तरफ से नारा गढ़ने वालों ने भाजपा की जगह "मोदी की गारंटी" शब्द गढ़ा। हैरत की बात है कि सरकार के मुखिया ने उसे आत्मसात भी कर लिया। जबकि वे तो स्वयं को संघ की घुट्टी पिया स्वयंसेवक के रूप में निरूपित करते थकते नहीं थे। पार्टी पर व्यक्ति की सवारी हो रही थी।
आरएसएस आखिर कब तक चुप रहता? क्योंकि सवाल आरएसएस पर भी उठने लग गए थे कि भागवतजी क्या कर रहे हैं, उन्हें नहीं दिख रहा यह सब? संघ सरसंघचालक किसी उचित मौके की तलाश में ही थे। लिहाजा उन्होंने "मोदी-3" का आगाज होते ही अपनी आवाज खोली। वे नहीं चाहते थे कि मोदी-3 सरकार में भी मोदी-2 सरकार की कार्यशैली घर करे। नतीजतन परिवार के मुखिया ने सरकार के शपथ लेने और मंत्रिमंडल का गठन होते ही साफ-साफ संदेश दे दिया कि प्रधान सेवक कैसा होता है या होना चाहिए। सरकार को अहंकार से परे और स्थापित मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। विपक्ष के प्रति व्यवहार से लेकर उसकी जरूरत को भी संघ मुखिया ने स्पष्ट किया। चुनाव की लड़ाई को युद्ध में तब्दील करने पर पक्ष विपक्ष दोनों को निशाने पर भी लिया और यह भी दो टूक कहा कि झूठ की बुनियाद पर चुनाव न लड़ा जाए। लेकिन परिवार के मुखिया के संबोधन का बड़ा हिस्सा अपने अनुषांगिक संगठन और उसके नेताओं के लिए ही था। 2014 से 2024 तक की सरकार की यात्रा पर निरंतर नजर रखने के बाद आरएसएस का यह आक्रामक स्वरूप सामने आया है। संघ मुखिया के बयान ने मोदी-3 सरकार को सन्नाटे में खींच दिया। शायद उसी का नतीजा रहा कि कल ही देश के प्रधानमंत्री ने बयान दिया कि सब लोग सोशल मीडिया से "मैं मोदी का परिवार" का प्रचार हटा लें। जब बरसों से इस देश में संघ परिवार स्थापित है तो यह नया परिवार कहाँ से आया और क्यों आया?
संघ चाहता था चुनाव बाद हो रामजी का काज
क्या आरएसएस यह चाहता था कि अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन और रामलला का प्राण प्रतिष्ठा समारोह चुनाव बाद हो? यह सवाल संघ गलियारों से ही निकलकर सामने आया है कि आरएसएस की राय थी कि राम मंदिर का मामला देश की आस्था का विषय है, राजनीति का नहीं। लिहाजा पूरा कार्यक्रम राजनीति से परे हो। सूत्रों की माने तो संघ तो इसके पक्ष में भी नहीं था कि देश के प्रधानमंत्री जजमान की भूमिका निभाएं। संघ की मंशा थी कि यह काम साधु-संतों और शंकराचार्यों के जिम्मे हो। राम जन्मभूमि आंदोलन के लालकृष्ण आडवाणी जैसे रथी की मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी भी संघ को अखरी।
संघ-सरकार के मुखिया में लंबे समय से था अबोलापन..!!
संघ और सरकार के मुखिया के बीच लंबे समय से अबोलापन बना हुआ था। याद नहीं आती दोनों के बीच परस्पर मेल मुलाकात की कोई तस्वीरें। जबकि यह सर्वविदित है कि वर्तमान आरएसएस प्रमुख ही मोदी की गुजरात से दिल्ली दस्तक के प्रबल पक्षधर थे। वे नहीं होते तो आडवाणी युग की मौजूदगी के बावजूद मोदी का दिल्ली का नायक बनना असंभव था। संघ मुखिया ही सबसे बड़ी ढाल बनकर खड़े रहे। 282 के साथ मोदी और उनकी टीम अपेक्षा पर खरी भी उतरी। 2019 में भी यह करिश्मा कायम रहा। सूत्र बताते हैं कि सरकार में तमाम विकृतियों ने घर 2019 की सरकार के बाद किया। ऐसा नहीं कि संघ ने चेताया नहीं, लेकिन सरकार ने सुना नहीं। संघ चेता चुका था कि सिर्फ हिंदुत्व और ब्रांड मोदी से कुछ नहीं होगा। हुआ भी वही। सूत्रों की माने तो इस मामले में मोदी को सबसे बड़ा नुकसान सरकार में नंबर 2 की पोजीशन वाले अमित शाह के कारण हुआ। शाह की रीति-नीति पर आँख मूंदकर भरोसा करना आखिरकार मोदी को भारी पड़ा। जिसका खामियाजा आज परिवार के मुखिया के मुख से खरी-खरी के रूप में सामने है।
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